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रवीन्द्रनाथ टैगोर की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2112
आईएसबीएन :9789350003688

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प्रस्तुत है रवीन्द्रनाथ की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ...

Raveendranath ki sarvashreshth kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1940) उन साहित्य-सृजकों में हैं, जिन्हें काल की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। रचनाओं के परिमाण की दृष्टि से भी कम ही लेखक उनकी बराबरी कर सकते हैं। उन्होंने एक हज़ार से भी अधिक कविताएँ लिखीं और दो हज़ार से भी अधिक गीतों की रचना की। इनके अलावा उन्होंने बहुत सारी कहानियाँ, उपन्यास, नाटक तथा धर्म, शिक्षा, दर्शन, राजनीति और साहित्य जैसे विविध विषयों से संबंधित निबंध लिखे। उनकी दृष्टि उन सभी विषयों की ओर गई, जिनमें मनुष्य की अभिरुचि हो सकती है। कृतियों के गुण-गत मूल्यांकन की दृष्टि से वे उस ऊँचाई तक पहुँचे थे, जहाँ कुछेक महान् रचनाकर ही पहुँचते हैं। जब हम उनकी रचनाओं के विशाल क्षेत्र और महत्व का स्मरण करते हैं, तो इसमें तनिक आश्चर्य नहीं मालूम पड़ता कि उनके प्रशंसक उन्हें अब तक का सबसे बड़ा साहित्य-स्रष्टा मानते हैं।

महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारत के विशिष्ट नाट्यकारों की भी अग्रणी पंक्ति में हैं। परंपरागत और आधुनिक समाज की विसंगतियों एवं विडंबनाओं को चित्रित करते हुए उनके नाटक व्यक्ति और संसार के बीच उपस्थित अयाचित समस्याओं के साथ संवाद करते हैं। परम्परागत संस्कृत नाटक से जुड़े और बृहत्तर बंगाल के रंगमंच और रंगकर्म के साथ निरंतर गतिशील लोकनाटक (जात्रा आदि) तथा व्यवसायिक रंगमंच तीनों संबद्ध होते हुए भी रवीन्द्रनाथ उन्हें अतिक्रान्त कर अपनी जटिल नाट्य-संरचना को बहुआयामी, निरंतर विकासमान और अंतरंग अनुभव से पुष्ट कर प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि राजा ओ रानी (1889), विसर्जन (1890), डाकघर (1912), नटीरपूजा (1926), रक्तकरबी (लाल कनेर), अचसायत (1912), शापमोचन (1931) चिरकुमार सभा (1926) आदि उनकी विशिष्ट नाट्य-कृतियाँ ने केवल बंगाल में, बल्कि देश-विदेश के रंगमंचो पर अनगिनत बार मंचित हो चुकी हैं।

जीवित और मृत

रानीहाट के जमींदार बाबू शारदाशंकर के परिवार की विधवा बहू के पितृकुल में कोई नहीं था; एक-एक करके सब मर गए। पति कुल में भी सचमुच अपना कहने योग्य कोई न था, पति भी नहीं। जेठ का एक लड़का था, शारदाशंकर का छोटा पुत्र वही उसकी आंखों का तारा था। उसके जन्म के बाद उसकी माता बहुत दिनों तक कठिन रोग से पीड़ित रहीं, इसलिए उसकी विधवा काकी कादम्बिनी ने ही उसका पालन-पोषण किया। पराए लड़के का पालन-पोषण करने पर उसके प्रति स्नेह का आकर्षण मानो और भी अधिक हो जाता है, क्योंकि उस पर कोई अधिकार नहीं होता, न उस पर कोई सामाजिक दावा रहता है; बस केवल स्नेह का अधिकार रहता है। किंतु अकेला स्नेह समाज के सामने अपने अधिकार को तर्क द्वारा प्रमाणित नहीं कर पाता और वह करना भी नहीं चाहता, केवल अनिश्चित प्राण धन को दुगुनी व्याकुलता से प्यार करने लगता है। विधवा की सारी रुद्ध प्रीति से इस बालक को सींचकर श्रावण की एक रात में अकस्मात् कादम्बिनी की मृत्यु हो गई। न जाने किस कारण सहसा उसका ह्रस्पंदन स्तब्ध हो गया बाकी सारे संसार में समय की गति चलती रही, केवल स्नेह-कातर छोटे-से कोमल वक्ष के भीतर समय की घड़ी की कल चिरकाल के लिए बंद हो गई।

कहीं पुलिस का उपद्रव न हो इस डर से बिना विशेष आडंबर के जमींदार के चार ब्राह्मण कर्मचारी मृत देह को तुरंत दाह संस्कार के लिए ले गए।
रानीहाट का श्मशान बस्ती से बहुत दूर था। पोखर के किनारे एक झोंपड़ी थी और उसके निकट ही एक विशाल वट वृक्ष था; विस्तृत मैदान में और कहीं कुछ न था। पहले यहाँ होकर नदी बहती थी, इस समय नदी बिल्कुल सूख गई थी। उसी शुष्क जल धारा के एक अंश को खोदकर श्मशान के पोखर का निर्माण कर लिया गया था। वर्तमान निवासी उस पोखर को ही पुण्य स्रोतस्विनी का प्रतिनिधिस्वरूप मानते थे।

मृत देह को झोंपड़ी में रखकर चारों जने चिता के लिए लकड़ी आने की प्रतीक्षा में बैठा रहे। समय इतना लंबा मालूम होने लगा कि अधीर होकर उनमें से निताई और गुरुचरण तो यह देखने के लिए चल दिए कि लड़की आने में इतनी देर क्यों हो रही है; और विधु तथा वनमाली मृत देह की रक्षा करते बैठे रहे।
सावन की अंधेरी रात थी। सघन बादल छाए हुए थे, आकाश में एक भी तारा नहीं दिखता था। अंधेरी झोंपड़ी में दोनों चुपचाप बैठे रहे। एक की चादर में दियासलाई और बत्ती बंधी हुई थी। वर्षा ऋतु की दियासलाई बहुत प्रयत्न करने पर भी न जली जो लालटेन साथ थी वह भी बुझ गई।
बहुत देर तक चुप बैठे रहने के बाद एक ने कहा, ‘‘भाई एक चिलम तंबाकू का प्रबंध होता तो बड़ी सुविधा होती। जल्दी-जल्दी में कुछ भी न ला सके।’’

दूसरे ने कहा, ‘‘मैं झट से एक सपाटे में सब कुछ इकट्ठा करके ला सकता हूं।’’
वनमाली के भागने के अभिप्राय को ताड़कर विधु ने कहा, ‘‘मैया री ! और मैं क्या यहां अकेला बैठा रहूंगा।’’
बातचीत फिर बंद हो गई। पांच मिनट एक घंटे के समान लगने लगे। जो जने लकड़ी लेने गए थे उनको ये लोग मन ही मन गाली देने लगे, वे कहीं खूब आराम से बैठे बातें करते हुए हुक्का पी रहे होंगे,’ धीरे-धीरे यह संदेह उनके मन में दृढ़ होने लगा।
कहीं कोई आहट नहीं केवल पोखर के किनारे से झिल्लियों और मेढ़कों की अविरल पुकार सुनाई पड़ रही थी। इतने में प्रतीत हुआ जैसे खाट कुछ हिली जैसे मृत देह ने करवट बदली।

विधु और वनमाली राम नाम जपते-जपते कांपने लगे। हठात् झोंपड़ी में दीर्घ-निःश्वास लेने की आवाज सुनाई पड़ी। विधु और वनमाली पलक मारते झोंपड़ी से झपटकर बाहर निकले और गांव की ओर दौड़े।
लगभग डेढ़ कोस रास्ता पार करने पर उन्होंने देखा उनकी बाकी दो साथी हाथ में लालटेन लिए चले आ रहे हैं। वे वास्तव में हुक्का पीने ही गए थे, लकड़ी का उन्हें कोई पता न था, तो उन्होंने समाचार दिया कि पेड़ काटकर लकड़ी चीरी जा रही है-जल्दी ही पहुंच जाएगी। तब विधु और वनमाली ने झोंपड़ी की सारी घटना का वर्णन किया। निताई और गुरुचरण ने अविश्वास करते हुए उसे उड़ा दिया, और कर्त्तव्य त्यागकर भाग आने के लिए उन दोनों पर अत्यंत क्रुद्ध हुए और डांटने फटकारने लगे।

अविलंब चारों व्यक्ति उस झोंपड़ी में आकर उपस्थित हुए। भीतर घुसकर देखा मृद देह नहीं है, खाट सूनी पड़ी है।
वे परस्पर एक-दूसरे का मुंह देखते रह गए। शायद श्रृंगाल ले गए हों ? किंतु आच्छादन वस्त्र तक नहीं था। खोजते-खोजते बाहर आकर देखा, झोंपड़ी के द्वार के पास थोड़ी-सी कीचड़ जमी थी, उस पर किसी स्त्री के नन्हे पैरों के ताजे चिह्न थे।
शारदाशंकर सहज आदमी नहीं थे, उनसे भूत की यह कहानी कहने पर सहसा कोई शुभ फल मिलेगा, ऐसी संभावना न थी। इसलिए चारों व्यक्तियों ने खूब सलाह करके निश्चय किया कि यही खबर देना ठीक होगा कि दाह कार्य पूरा कर दिया गया है।
भोर में जो लोग लकड़ी लेकर आए उन्हें खबर मिली कि देर होती देखकर पहले ही कार्य संपन्न कर दिया गया, झोंपड़ी में लकड़ी मौजूद थीं। इस विषय में किसी को भी सहज ही संदेह उत्पन्न नहीं हो सकता-क्योंकि मृत देह ऐसी बहुमूल्य संपत्ति नहीं, जिसे धोखा देकर कोई चुरा ले जाय।


2



सभी जानते हैं, जीवन का जब कोई लक्षण नहीं मिलता तब भी कई बार जीवन प्रच्छन्न रूप में बना रहता है और समय अनुकूल होने पर मृतवत् देह में फिर से उसका कार्य आरंभ होता है। कादम्बिनी भी मरी नहीं थी-सहसा न जाने किस कारण से उसके जीवन की गति बंद हो गई थी।

जब उसकी चेतना लौटी तो उसने देखा, चारों ओर निबिड़ अंधकार था। हमेशा की आदत के अनुसार जहां सोती थी, उसे लगा यह वह जगह नहीं है। एक बार पुकारा दीदी-अंधेरी झोंपड़ी में किसी ने उत्तर न दिया। वह भयभीत होकर उठ बैठी, उसे उस मृत्यशय्या की बात याद आई। एकाएक छाती में हुई पीड़ा सांस रुकने की बात। उसकी बड़ी जिठानी कमरे के कोने में बैठी चूल्हे पर बच्चे के लिए दूध गर्म कर रही थी-कादम्बिनी खड़ी न रह सकी और पछाड़ खाकर बिछौने पर गिर पड़ी रुंधे गले से पुकारा दीदी एक बार बच्चे को ले आओ, मेरा मन न जाने कैसा हो रहा है।’ उसके बाद सबकुछ काला पड़ गया-जैसे किसी लिखी हुई पुस्तिका पर दावात की पूरी स्याही उलट दी गई हो। कादम्बिनी की सारी स्मृति एवं चेतना, विश्व ग्रंथ के समस्त अक्षर एक मुहूर्त में एकाकार हो गए। बच्चे ने उसको अंतिम बार अपने उस मीठे प्यार भरे स्वर में काकी कहकर पुकारा था या नहीं, उसकी अनंत अज्ञात मरण यात्रा के पथ के लिए चिर-परिचित पृथ्वी से यह अंतिम स्नेह पाथेय-मात्र इकठ्ठा करके लाया गया था या नहीं, विधवा को यह भी याद नहीं आ रहा था।

पहले तो लगा, यमलोक कदाचित् इसी प्रकार चिर निर्जन और चिरांधकारपूर्ण है। वहां कुछ भी देखने को नहीं है, सुनने को नहीं है, सुनने को नहीं है, काम करने को नहीं है। केवल सदा इसी प्रकार जागते हुए बैठे रहना पड़ेगा।
उसके पश्चात् जब मुक्त द्वार से एकाएक वर्षाकाल की ठंडी हवा का झोंका आया और कानों में वर्षा के मेंढकों की पुकार पड़ी, तब क्षण भर में उस लघु जीवन की आशैशव वर्षा की समस्त स्मृति घनीभूत होकर उसके मन में उदित हुई और वह पृथ्वी के निकट स्पर्श का अनुभव कर सकी। एक बार बिजली चमकी; सामने के पोखर, वट वृक्ष विस्तृत मैदान और सूदूर की तरुश्रेणी पर अचानक उसकी दृष्टि पड़ी। उसे याद आया कि पुण्य तिथियों के अवसर पर बीच-बीच में आकर उसने इस पोखर में स्नान किया था और यह भी याद आया कि उस समय श्मशान में मृत देह को देखकर मृत्यु कैसी भयानक प्रतीत होती थी।

पहले तो मन में आया कि घर लौटना चाहिए। किंतु साथ ही सोचा, मैं तो जीवित नहीं हूं मुझे वे घर में क्यों घुसने देंगे। वहां तो अमंगल माना जाएगा। जीवन जगत् से तो मैं निर्वासित होकर आई हूं-मैं अपनी ही प्रेतात्मा हूं।’’
यदि यह सही नहीं है तो इस अर्धरात्रि में शारदाशंकर के सुरक्षित अंतपुर से इस दुर्गम श्मशान में आई कैसे। यदि उसकी अंत्येष्टि क्रिया अभी समाप्त नहीं हुई है तो दाह क्रिया करने वाले आदमी कहां गए। उसे शारदाशंकर के आलोकित घर में अपनी मृत्यु के अंतिम क्षण याद आए और उसके बाद ही इस बहुदूरवर्ती जन शून्य अंधेरे श्मशान में अपने को अकेली देखकर उसने अनुभव किया, ‘मैं इस पृथ्वी के जन समाज की अब कोई नहीं मैं अति भीषण अकल्याणकारिणी, मैं अपनी ही प्रेतात्मा हूं।’

मन में यह बात आते ही लगा, जैसे उसके चारों ओर से विश्व नियमो के समस्त बंधन टूट गए हैं। जैसे उसमें अद्भुत शक्ति हो, उसे असीम स्वाधीनता हो-वह जहां चाहे जा सकती है, जो चाहे कर सकती है। इस अभूतपूर्व नूतन विचार के आविर्भाव से वह उन्मत्त की भांति प्रबल वायु के झोंके के समान झोंपड़ी से बाहर निकलकर अंधकारपूर्ण श्मशाम को रौंदती हुई चल पड़ी-मन में लज्जा, भय, चिंता का लेश मात्र न रहा।

चलते-चलते पैर थकने लग गए, देह दुर्बल लगने लगी; एक मैदान पार करते न करते दूसरा आ जाता था। बीच-बीच में धान के खेत पार करने पड़ते या फिर कहीं-कहीं घुटनों तक पानी भरा मिलता। जब भोर का प्रकाश कुछ-कुछ दिखाई देने लगा तब जाकर थोड़ी दूर पर बस्ती के बांस के झाड़ों से दो-एक पक्षियों की चहचहाहट सुनाई दी।

तब उसे न जाने कैसा भय लगने लगा। जगत् और जीते-जागते लोगों के हाथ इस समय उसका कैसा नया संपर्क स्थापित हो गया था यह वह तनिक भी नहीं जानती थी। जब तक मैदान में थी, श्रावणी रजनी के अंधेरे में थी, तब तक वह जैसे निर्भय थी, जैसे अपने राज्य में थी। दिन के प्रकाश में लोगों की बस्ती उसे अत्यंत भयंकर स्थान लगने लगी। मनुष्य भूत से डरता है, भूत भी मनुष्य से डरता है; मृत्यु नदी से अलग-अलग किनारे पर उनका वास है।


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